६. प्रवर्तन । काम का चलना ।

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प्रवृत्ति

३. वर्णों के उच्चारण में होनेवाली क्रिया । विशेष—उच्चारण प्रयत्न दो प्रकार का होता है—आभ्यंतर और बाह्य । ध्वनि उत्पन्न होने के पहले वागिंद्रिय की क्रिया को आभ्यंतर प्रयत्न कहते हैं और ध्वनि के अंत की क्रिया को बाह्य प्रयत्न कहते हैं । आभ्यंतर प्रयत्न के अनुसार वर्णों के चार भेद हैं—(१) विवृत—जिनके उच्चारण में वगिंद्रिय खुली रहती है, जैसे, स्वर । (२) स्पृष्ट—जिनके उच्चारण में वागिंद्रिय का द्वार बंद रहता है, जैसे, 'क' से 'म' तक २५ व्यंजन । (३) ईषत् विवृत—जिनके उच्चारण में वागिंद्रिय कुछ खुली रहती है, जैसे य र ल व । (४) ईषत् स्पृष्ट—श ष स ह । ब्राह्य प्रयत्न के अनुसार दो भेद हैं अघोष और घोष । अघोष वर्णों के उच्चारण में केवल श्वास का उपयोग होता है । कोई नाद नहीं होता, जैसे— क ख, च छ, ट ढ त, थ, प, फ, श, ष और स । घोष प्रवृत्ति के प्रकार वर्णों के उच्चारण में केवल नाँद का उपयोग होता है—शेष व्यंजन और सब स्वर ।

मूल प्रवृत्ति की परिभाषाएँ

मूल – प्रवृत्तियों के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए मनोवैज्ञानिको ने निम्न परिभाषाएँ दी है –

वैलेनटाइन के आनुसार, “मूल – प्रवृत्ति वह जन्मजात प्रवृत्ति है जो किसी जैविकीय प्रयोजन प्रवृत्ति के प्रकार को निश्चित तरीके से क्रिया करके पूरा करती है।”

वुडवर्थ के अनुसार, “मूल – प्रवृत्ति, क्रिया करने का बिना सीखा हुआ स्वरूप है।”

मूल-प्रवृत्तियों के प्रकार

मूल – प्रवृत्तियों का वर्गीकरण वुडवर्थ, थार्नडाइक, ड्रेवर आदि अनेक वैज्ञानिकों ने किये हैं लेकिन मैक्डूगल द्वारा किया गया मूल – प्रवृत्तियों का वर्गीकरण मौलिक और सर्वमान्य है।

विलियम मैक्डूगल ने अपने पुस्तक Outline Of Psychology में कुल 14 मूल – प्रवृतियों के बारे में बताया है जिनके नाम नीचे दिए गये हैं –

मूल प्रवृत्ति संवेग
पलायनभय
युयुत्साक्रोध
निवृत्तिघृणा
संतान की प्राप्तिवात्सल्य
शरणागतकरुणा
कामकामुकता
जिज्ञासाआश्चर्य
दैन्यआत्म हीनता
आत्म गौरवआत्म स्वाभिमान
सामूहिकताएकांकीपन
भोजनभूख
स्वामित्वसंग्रहण
रचनात्मकताकृतिभाव
हास्यआमोद

मूल-प्रवृत्तियों का रूप परिवर्तन

मूल – प्रवृत्तियों में परिवर्तन लाने की चार विधियाँ हैं जिनके नाम नीचे दिए गये हैं –

मूल – प्रव्रत्ति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है –

  • मूल – प्रव्रत्ति अचेतन मन में होती है।
  • मूल – प्रव्रत्ति जन्मजात और स्वाभाविक होती है।
  • मूल – प्रव्रत्ति का रूप, स्वरूप, कार्य सभी प्राणियों में अलग होता है।
  • मूल – प्रव्रत्ति परिवर्तनशील होती है।
  • मूल – प्रव्रत्ति आदतों से भिन्न होती है।
  • मूल – प्रव्रत्ति से व्यवहार क्रिया करने के लिए प्रेरित करती हैं।
  • प्रत्येक मूल प्रवृत्ति के प्रकार – प्रव्रत्ति के तीन पक्ष (भावात्मक, क्रियात्मक और संज्ञानात्मक) होते हैं।

Manav Mool Pravrati Hindi (मानव की मूल प्रवृति)

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Manav ki mool pravriti

Manav Mool Pravrati Hindi/ Manav ki Mool Pravrati

मानव जो कार्य बिना सीखे हुए जन्मजात या प्राकृतिक प्रेरणाओं के आधार पर करता है वह मानव की मूल प्रवृत्ति कहलाती है. या दूसरे शब्दों में कहें तो-

“मानव की मूल प्रवृत्ति वह क्रिया है जो जन्मजात होती है। यह एक आन्तरिक बल की तरह है जो हमारे आवश्यकता की पूर्ति के लिये आवश्यक होती है।”

उदाहरण के लिए: भूख ,प्यास, दुख, सुख, गुस्सा, आदि।

मानव की मूल प्रवृत्तियां 14 होती प्रवृत्ति के प्रकार हैं. मूल प्रवृत्तियों का सिद्धांत विलियम मैकडूगल (William McDougall) ने दिया था. प्रत्येक मूल प्रवृत्ति से एक संवेग संबंधित होता है. संवेग की उत्पत्ति मूल प्रवृत्तियों से हुई है.

इसे भी पढ़ें: बाल विकास की विभिन्न अवस्थाएं

मूल प्रवृत्ति संवेग
पलायन (भागना) भय
निवृति (अप्रियता) घृणा
युयुत्सा (युद्ध प्रियता) क्रोध
शिशु रक्षा वात्सल्य/ प्रेम
संवेदनशीलता कष्ट
काम प्रवृति कामुकता
जिज्ञासा आश्चर्य
आत्महीनता अधीनता की भावना
आत्म प्रदर्शन श्रेष्ठता की भावना
सामूहिकता एकाकीपन
भोजन तलाश भूख
संचय अधिकार की भावना
श्रचना रचना का आनंद ले
हास आमोद

संज्ञान का अर्थ-

इसका अर्थ सीधी भाषा में समझ या ज्ञान होता है।

संज्ञान में मुख्यतः ज्ञान, समग्रता, अनुप्रयोग, विश्लेषण तथा मूल्यांकन पक्ष सम्मिलित होते है।
संज्ञान से अभिप्राय एक ऐसी प्रक्रिया से होता है जिसमें संवेदन, प्रत्यक्षण, प्रवृत्ति के प्रकार प्रतिभा, धारणा, प्रत्यास्मरण, समस्या समाधान,तर्क जैसी मानसिक क्रियाएं सम्मिलित होती हैं।

अतः संज्ञान से तात्पर्य है संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उसका रूपांतरण, विस्तरण, संग्रहण उसका समुचित प्रयोग करने से होता है।

संज्ञानात्मक विकास से तात्पर्य बालकों में किसी संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उस पर चिंतन करने तथा क्रम से उसे इस लायक बना देना होता है जिसका प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में करके इस तरह तरह की समस्या समाधान कर सकते हैं।

संज्ञानात्मक विकास के अध्ययन के क्षेत्र में जीन पियाजे का सिद्धांत एक अभूतपूर्व सिद्धांत माना गया है उन्होंने बालक के चिंतन व तर्क के विकास में जैविक व संरचनात्मक तत्व पर प्रकाश डालकर संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या की है।

प्रवृत्ति के प्रकार

Q.32: सीमांत प्रवृत्ति के प्रकार उपभोग प्रवृत्ति किसे कहते हैं? यह किस प्रकार सीमांत बचत प्रवृत्ति से संबंधित है?

Answer: प्रवृत्ति के प्रकार सीमांत उपभोग प्रवृत्ति :- सीमांत उपभोग प्रवृत्ति कुल आय में वृद्धि तथा कुल उपभोग में वृद्धि के मध्य सम्बंध स्थापित करती है। इसे निम्न सूत्र द्वारा व्यक्त किया जाता है।

सीमान्त बचत प्रवृत्ति :- सीमांत बचत प्रवृत्ति आय में वृद्धि तथा कुल बचत में वृद्धि के अनुपात को बताती है। इसे निम्न सूत्र द्वारा व्यक्त किया जाता है।

सीमांत उपभोग प्रवृत्ति तथा सीमांत बचत प्रवृत्ति दोनों अलग-अलग हैं तथा दोनों अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे के साथ सम्बंधित हैं।

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